Thursday, September 5, 2019

आपका गाँव

           घर से दूर..... 

        


तब घर के आंगन मिट्टी के होते थे. मिट्टी हमारी होती थी. हम मिट्टी में स्वाद होता था.
लकड़ी के किंवाड़ से निकलते ही दुआर था. वहाँ हम मिट्टी के महल बनाया करते थे.
     पानी के छीकें मारने पर निकली सोंधी खुशबू और गीली होती मिट्टी की सिकुड़न ने हमेशा खुश किया. हम वहीं बैठे बैठे सकारात्मक प्रतिस्पर्धा करते, पर ईर्ष्या जैसे दोषों से मीलों दूर.

सुबह के सात बजे का विद्यालय. और पिता जी की छे बजे का वो बिना चार्जिंग का अलार्म.  कभी कभी मैं झुंझला जाता. फिर पिता जी के सख्त हाथ मेरे कनपटी पर दबाव डालते.... ना ना! वे मारते नहीं. बस हल्का सा दबाकर उठाते.

सुबह का वो समय समर का पल लगता. मन ही ना होता कि मैं बिस्तर से अपना आलिंगन छोड दूँ.  फिर कमरे के दक्षिण में नाना  भारत की मसालों से बन रही सब्जी की भीनी भीनी महक मुझे उठ जाने को प्रेरित करती.   

कितना शांत था सबकुछ. मैं साइकिल पर कपड़े से प्रक्षालन करता घुप्प सा मुँह बनाए जाने को तैयार.
  माँ भक्ति से परिपूर्ण है ही. सो माथे पर टीका दे जाती. मैं घुड़मुंहा सा ऐंठ दिखाता.... इसलिए नहीं कि मुझे जाना था. बल्कि नींद....

घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही...  किसी का घर नहीं था. मेरे पड़ोसियों का है. पटीदारी के शाश्वत स्वाभाव में रंगे पड़ोसी..
आज फलाने के लड़के ने बाल चिपका कर झाड़ा है. तो दूर से खड़े चाचा ने तंज मार दी, " हैं बेटा ! बहुत बाल झाड़के चौंक बन रहे हो "     

मुझे उनका व्यंग तब भी समझ आता था. पर ' चौंचक' क्यों कहा?

मैं फिर एकबार झूमता हुआ पहुँचा. काश वो दिन फिर आ जाए!
आज ना जाने किस कामना ने हमें गाँवों से दूर कोने में फेंक दिया. बहुत कुछ काल के लपेटे में आ गया. कुछ हमार ही " और अधिक " की इच्छा के लपेटा घत में. 

वैसे जीवन की अनंत इच्छाएं हमें कभी कभी बहुत दूर लाकर खड़ा कर देती हैं , 
भूल जाते हैं हम ...पीछे वाली दीवार की सीलन और मगन हो जाते हैं अपनी अपनी दुनिया में! 

अच्छा , मुझे ये बड़ा अटपटा सा लगता है . ज़रूर कुछ गणित है इसमें ..कि रात में कहीं भी किसी भी मोड़ पर शांत होकर अकेले शांति ओढ़कर कोई सोता रहता है.

और कोई जलवायु परिवर्तन को नेग देती ए. सी की ठंडी हवाओं में भी जलता जाता है.
पर क्यों? ?
ना जाने क्या माया है ....पर फिर भी उलझे हुए मन को अपना गाँव , अपने लोग  , अपनी हवा , अपनी मस्ती,  अपनी हस्ती ,  अपना सबकुछ याद आता है.

आता है ना! 
एक बार जब कोई गवहीं गाँव लौटता है. अपने जीवन के पहिए को थामकर , भौतिकता से कुछ दूर. वह फिर से जी उठता है.
फिर से वही साइकिल की पैंडल, वही सख्त तख्त, वही तकिया, वही हाथ, वही साथ, वही माटी...

उसे कहीं दूर से आवाज़ भी तो आती होगी  ! !
जैसे किसी छपरे पे बैठी कोयल कजरी गा रही हो. आते ही गाँव के डीह और बटवृक्ष पर रुकता है. सीस नवाता है.
शहर से लाई मैली धूल वहीं चित्त हो जाती है. गांव का अंधड़ सर्र सर्र सर्र .. करता है . जैसे पुकार रहा हो, " आओ आओ बड़े दिन बाद! ".

अंगना से दूर ही उसके कदम थम जाते हैं. हाथ नीचे झुक जाते हैं. वो अक्रूर के साथ जाता कृष्ण है. गोकुल को प्रणाम करता है.... 

बाहर पड़ी नंगी गिट्टियां उसके पैर सहला रही होती हैं.शहरी रंग से अनजान थीं वो. पर अब पैरों परद्विस्तरीय चमड़ चढ़ी थी. एक प्राकृतिक और एक चमड़े का बूट....

पर घर आए चिर परिचितहमान को देख ,दीवारों का बुढ़ापे में  कमी तो नहीं पर रुकावट ज़रूर आती हैं. सीलन सूखती है.
चौखट पर बूट पड़ते हैं, खट्ट सी आवाज़.
चौखट रंग की थाली लिए खड़ा होता है. पैर पड़ें, तो पूरे घर में गवहीं की चरण पादुका बना दी जाए.


इतना सब हुआ तो , दुआरे खड़ी तुलसी और रातरानी बस, मुस्कियाये जा रही थी...  

सही बात कही है किसी ने . .. 

" तू जितना आगे आएगा ,पीछे बहुत कुछ छोड़ आएगा" 

#बड़का_लेखक





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