फर्राटा भरती मेट्रो और टिंग टिंग करते खुलते गेट और फिर आंधी सी धड़धड़ाती अंदर घुसती भीड़...
किसी के हाथ पर किसी का बैग लड़ रहा था, तो कोई सहूलियत के लिए बैग्स को आगे लटकाये मूंगफली वाले भइया से कम नहीं लग रहा था ।
पों.. .. .. .... . करती आगे बढ़ती गाड़ी
मानो मुझे बता रही थी कि , "जनाब ये दिल्ली है यहाँ गाड़ियों से तेज़ लोगों की ज़िन्दगी भागती है। "
पों.. .. .. .... . करती आगे बढ़ती गाड़ी
मानो मुझे बता रही थी कि , "जनाब ये दिल्ली है यहाँ गाड़ियों से तेज़ लोगों की ज़िन्दगी भागती है। "
मैं भी आवाक् सा एक किनारे खड़ा था। अंदर घुुसते समय एक सीट तो दिखी थी, पर मेरे अंदर की हिचक ने वहाँ से दूर रहने को कहा।
खड़ हो गया मैं सीशे के बने गेट से सटकर...
कुछ आवाज़ आई " अगला स्टेशन है -कश्मीरी गेट दरवाजे बाईं ओर खुलेंगे ... " ( इंस्ट्रक्शन लंबा चौड़ा था)
दिल्ली में कश्मीर का नाम सुनकर मन में बच्चों वाले सवाल आए तो ज़रुर थे , पर फिर भी मैं बाहर आ गया।
वहाँ की औपचारिकता पूरी की ,एक कार्ड होता है उसी से अंदर आए थे,अब उसी से बाहर भी निकले ।
इतने में मेरे सामने दौड़ लगा दो लड़कियां आ गईं..
यही कोई आठ दस बरस की थीं.. चेहरा धूमिल सा, आंखे चमकती हुई थी, पर उनमें गीलापन भी था...हाथों मेें कालिख सी लगी थी, पर हथेली नाजुक सी ... एकदम छोटी सी बच्ची थी।
बाल भी उलझे हुए थे और उसमें थोड़ी थोड़ी धूल भी शरारत कर रही थी साइड में एक बैग टांगा था किसी कोचिंग का लगता था...
जैसे शायद किसी राहगीर ने फेका हो और उस गुड़िया को उपहार मिला हो..
उसके कपड़ो पर जरी का काम हुआ आ, पर चमक बिल्कुल नहीं थी , सितारे गिर चुके थे ..
और कढ़ाई के धागे अब थक चुके थे ,किसी की उतरन उसपे सब रही थी।
बाल भी उलझे हुए थे और उसमें थोड़ी थोड़ी धूल भी शरारत कर रही थी साइड में एक बैग टांगा था किसी कोचिंग का लगता था...
जैसे शायद किसी राहगीर ने फेका हो और उस गुड़िया को उपहार मिला हो..
उसके कपड़ो पर जरी का काम हुआ आ, पर चमक बिल्कुल नहीं थी , सितारे गिर चुके थे ..
और कढ़ाई के धागे अब थक चुके थे ,किसी की उतरन उसपे सब रही थी।
उसने हाथों में गोल्डन किनारी वाली पुरानी चूड़ियाँ पहनी थी ,
और उन चूड़ियों कि खनखनाहट ने जैसे मुझे सलामी ठोकी और फिर वो तपाक से बोल पड़ी - " भाई कुछ दे दे ,सुबह से कुछ नहीं खाया !! दे दो ना भइया "
और उन चूड़ियों कि खनखनाहट ने जैसे मुझे सलामी ठोकी और फिर वो तपाक से बोल पड़ी - " भाई कुछ दे दे ,सुबह से कुछ नहीं खाया !! दे दो ना भइया "
मैं कुछ बोल पाता कि, उनका पूरा समूह आ गया और जैसे सब मुझ पर टूट पड़े, उनमें प्रतिस्पर्धा भी थी...
मैं अकेला था...
मेरी जेब भी अकेली थी ,पर उन सबके पेट खाली थे . ..
मैं किसी एक को देता तो दूसरा चेहरा हारा सा मुझे निहारता.. ये सब कुछ कुछ पल भर में हो गया, यही कोई बीस सेकेन्ड..
मैं कुछ कर न पाया , पर पीछे से आवाज आई ," ओ भाई साइड में कर ले समाज सेवा"
समाज सेवा?
मतलब?
मैं ठगा सा महसूस कर रहा था,
मैं कुछ न देकर भी समाज सेवी कैसे हो गया?
मेरा मन मायूस सा था ...
मुझे आगे बढ़ना पड़ा, और वो फिर से पीछे छूट गईं...
मेेेेरी आंखों में उनकी गरीबी, भुखमरी, वंचितता और इनके लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों की झड़ी याद आ गई जो बस समाचारपत्रों की हेडलाइन्स में या फिर सिविल सेवा की तैयारी कर रहे युवाओं के पन्नों तक
सीमित रह जाती है
पता नहीं इनके साथ क्या होता है...
पर कापियों पर इन्हें अंडर लाइन किया जाता है...
मुझे बिलकुल समझ में आ रहा था कि मैं कुछ कर नहीं सकता पर फिर भी . . .
मैं दिल्ली में था और दिल साथ नहीं दे रहा था ,
#बड़का_लेखक
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