Tuesday, September 17, 2019

मिशन चंद्रयान 2 असफलता नहीं है..

चंदा मामा दूर के, पुए पकाए दूध में... .

बचपन में यदि आपने भी बिस्तर पे लेटे - लेटे  ये अमर गीत सुना है तो समझ जाएंगे कि मैं किसकी बात कर रहा.

 हमारी भारतीय संस्कृति में हम इतने अक्खड़ हुए हैं कि जिस चांद पर संपूर्ण संसार जाने की जद्दोजहद में लगा है,  हमने उस चांद को थाली में उतार दिया था, पर मोहन की उत्सुकता शांत नहीं हुई..


कुछ ऐसा आज भी है, विगत कई महीनों से पूरा हिन्दुस्तान एक नए सपने को साकार होता देख रहा था और वो था... चंद्रयान 2
 इस मिशन के प्रक्षेपण से लेकर लैंडिंग तक का सफर बड़ा विचित्र रहा।
मुझे याद आ रहा कि  लैंडिंग के कई महीनों पहले से पूरा भारत एक साथ ऐसे प्रतीक्षा कर रहा था, जैसे मैं बचपन में होली दिवाली का बेसब्री से इंतज़ार करता था।

ये मिशन कई मायनों में अनोखा था। हमारी नज़र उस हीरे को पाने की रही जिस तक पहुँचना नामुमकिन तो नहीं पर  हां मुश्किल बहुत था।
यहाँ तक कि दुनिया की बड़ी स्पेस एजेंसी नासा ने भी यहाँ जाने को सोचा नहीं था अभी तक..

हमने चंद्रयान के द्वारा चांद के दक्षिण ध्रुव को अपना निशाना बनाया और दस बरसों की लम्बी मेहनत से पहुँचे वहाँ  पर कुछ ठिठक कर...
मैंने क्या देखा और महसूस किया उस दिन जो आपने किया बस वही .. देखिए तो ज़रा....




" वो रात बड़ी खुशी लेके आई थी , हर समाचार चैनल और सोशल मीडिया कार्यालय से यही न्यूज़ प्रसारित थी,
धड़ाधड़ व्हाट्सएप पर चलते मैसज और ट्विटरिया समाज के सदस्य, कुछ ब्लू टिक वाले अकाउंट और कुछ ऐसे ही मेरे जैसे लोग बार बार बताए जा रहे थे.....
 कि भइया आज रात में सोना नहीं है, आज तो समझो एकदम मजा आए वाला है...".

असल में रात में जगने को लेकर मचे इन विचारों ने मुझे भी उत्सुक किया कि जगता हूँ थोड़ी देर...
फिलहाल थोड़ा पढ़ाई लिखाई कर के जब बिस्तर पे लेटा तो याद आया कि आज तो  " राष्ट्रीय  रतजगवा " है हो....

तुरंत 7.4 इंच का गतिमान  टी.वी. चलाया और तकनीक का श्रृंगार तकनीक की मदद से देखने लगा।

       
   "12 : 30 हो रहे थे और शायद कुछ समय बाकी था"
 फिर भी हर पल बहुत रोमांचक करने वाले थे, और फिर इसी बीच हमारे पी. एम. सर पहुँच चुके थे, ( नाम जगत व्याप्त है)
और फिर ...

और लगभग  1 बजे से संचालन प्रारंभ हुआ

 "विक्रम की स्पीड लगातार कम की जा रही है"
" विक्रम चंद्रमा की सतह से मात्र 30 कि.मी. है"
 (और हाल में तालियाँ बजती हुई )

"और अब मात्र 10 कि.मी. ... "
"सभी वैज्ञानिकों के चेहरे पर चमक "
"प्रधानमंत्री जी भी तालियाँ बजा कर अभिवादन करते हुए "

"मात्र 5 कि.मी. शेष.. सभी हर्षित मुद्रा में "

ये लगातार कमेन्ट्री इसरो के कार्यालय से हो रही थी और मेरी धड़कन बढ़ रही थी, मन इतना रोमांचित था और  उम्मीद तो सातवें आसमान पर।
 उस समय न केवल विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र आगे बढ़ रहा था और अरबों लोग देख रहे थे बल्कि पूरा विश्व नज़र गड़ाये बैठा था।

अगले दो तीन मिनट बहुत बड़ी भूमिका निभाने वाले थे,
और ऐसा ही हुआ ,
लगभग 2.4 कि.मी. पर कुछ गड़बड़ हुआ
और विक्रम इसी बीच अपने निर्धारित मार्ग से भटक गया....

ये बहुत दुखदायी था,
सबके हंसते चेहरे मायूस हो गये...
सब फिर से उम्मीद लगाने लगे, पर कुछ न हो सका...
और अपनी दुखभरी आवाज़ से ऐलान हो गया कि विक्रम से हमारा सम्पर्क टूट गया है।

चारो तरफ सन्नाटा था,
मैं निराश हो गया, पल भर के लिए तो नकारात्मकता आ गई मेरे मन में, दुखी हो गया,
इसरो सेंटर में सन्नाटा था, सब मायूस हे हो गये  पर फिर तस्वीरें आई और ...

उसी सन्नाटे में पूरे भारत की महक, प्यार, स्नेह, समर्पण को प्रणाम  इसरो सेंटर तक पहुँच गया।

उनका मायूस चेहरा लाज़मी था, मेहनत के बात परिणाम अपेक्षित न हों तो ये स्वभाविक तो था।
पर उनके साथ हिंदुस्तान खड़ा था।
आज जैसे कश्मीर का प्रेम, उत्तर मैदान को पार कर सतपुड़ा और महाभारत की दीवारों को लांघ चुका था... और जाकर बह चुका था दक्कन के किनारे खड़े अपने सिपाहियों के गोदी में।

आज वहाँ सब पहुँच तो न सके, पर सवेरे जब निर्लिप्त प्रकृति का त्यागमय समर्पण अपने बांध रोक ना सका और फूट पड़ी कुछ बेहतर करने की  जिजीविषा, तो सामने दो कंधों में पूरा हिन्दुस्तान खड़ा था ....
हमें गर्व ही नहीं , अगाध प्रेम है इनसे, इनके समर्पण से
विक्रम पहुँच न पाया पर हमारा मिशन सफल हो गया।
हम पहले देश बने जो दक्षिणी ध्रुव पर गया और आगे और आगे जाएंगे....

जय हिंद


#बड़का_लेखक
#शिवम्_शर्मा

         


Tuesday, September 10, 2019

हिंदी की कविता

प्रेम है जैसे... ..
.

.

"जैसे गोद में भूखे बच्चे को मां का दूध मिलता है
जैसे सूखी धरती पर पानी का छींटा पड़ता है...

जैसे मछली जल की रानी है, वाली मछली को पानी में जीवन मिलता है...

जैसे गिरते पसीनों की बूंदों पर , हवा सहलाती हो
जैसे खिलता हुआ फूल गमलों में दिखता है...

जैसे छींक आने पर किसी ने याद किया हो
जैसे डरता हुए बच्चे के सर पर हाथ फिरा हो..."

#बड़का_लेखक
#शिवम्


Thursday, September 5, 2019

आपका गाँव

           घर से दूर..... 

        


तब घर के आंगन मिट्टी के होते थे. मिट्टी हमारी होती थी. हम मिट्टी में स्वाद होता था.
लकड़ी के किंवाड़ से निकलते ही दुआर था. वहाँ हम मिट्टी के महल बनाया करते थे.
     पानी के छीकें मारने पर निकली सोंधी खुशबू और गीली होती मिट्टी की सिकुड़न ने हमेशा खुश किया. हम वहीं बैठे बैठे सकारात्मक प्रतिस्पर्धा करते, पर ईर्ष्या जैसे दोषों से मीलों दूर.

सुबह के सात बजे का विद्यालय. और पिता जी की छे बजे का वो बिना चार्जिंग का अलार्म.  कभी कभी मैं झुंझला जाता. फिर पिता जी के सख्त हाथ मेरे कनपटी पर दबाव डालते.... ना ना! वे मारते नहीं. बस हल्का सा दबाकर उठाते.

सुबह का वो समय समर का पल लगता. मन ही ना होता कि मैं बिस्तर से अपना आलिंगन छोड दूँ.  फिर कमरे के दक्षिण में नाना  भारत की मसालों से बन रही सब्जी की भीनी भीनी महक मुझे उठ जाने को प्रेरित करती.   

कितना शांत था सबकुछ. मैं साइकिल पर कपड़े से प्रक्षालन करता घुप्प सा मुँह बनाए जाने को तैयार.
  माँ भक्ति से परिपूर्ण है ही. सो माथे पर टीका दे जाती. मैं घुड़मुंहा सा ऐंठ दिखाता.... इसलिए नहीं कि मुझे जाना था. बल्कि नींद....

घर से निकलते ही कुछ दूर चलते ही...  किसी का घर नहीं था. मेरे पड़ोसियों का है. पटीदारी के शाश्वत स्वाभाव में रंगे पड़ोसी..
आज फलाने के लड़के ने बाल चिपका कर झाड़ा है. तो दूर से खड़े चाचा ने तंज मार दी, " हैं बेटा ! बहुत बाल झाड़के चौंक बन रहे हो "     

मुझे उनका व्यंग तब भी समझ आता था. पर ' चौंचक' क्यों कहा?

मैं फिर एकबार झूमता हुआ पहुँचा. काश वो दिन फिर आ जाए!
आज ना जाने किस कामना ने हमें गाँवों से दूर कोने में फेंक दिया. बहुत कुछ काल के लपेटे में आ गया. कुछ हमार ही " और अधिक " की इच्छा के लपेटा घत में. 

वैसे जीवन की अनंत इच्छाएं हमें कभी कभी बहुत दूर लाकर खड़ा कर देती हैं , 
भूल जाते हैं हम ...पीछे वाली दीवार की सीलन और मगन हो जाते हैं अपनी अपनी दुनिया में! 

अच्छा , मुझे ये बड़ा अटपटा सा लगता है . ज़रूर कुछ गणित है इसमें ..कि रात में कहीं भी किसी भी मोड़ पर शांत होकर अकेले शांति ओढ़कर कोई सोता रहता है.

और कोई जलवायु परिवर्तन को नेग देती ए. सी की ठंडी हवाओं में भी जलता जाता है.
पर क्यों? ?
ना जाने क्या माया है ....पर फिर भी उलझे हुए मन को अपना गाँव , अपने लोग  , अपनी हवा , अपनी मस्ती,  अपनी हस्ती ,  अपना सबकुछ याद आता है.

आता है ना! 
एक बार जब कोई गवहीं गाँव लौटता है. अपने जीवन के पहिए को थामकर , भौतिकता से कुछ दूर. वह फिर से जी उठता है.
फिर से वही साइकिल की पैंडल, वही सख्त तख्त, वही तकिया, वही हाथ, वही साथ, वही माटी...

उसे कहीं दूर से आवाज़ भी तो आती होगी  ! !
जैसे किसी छपरे पे बैठी कोयल कजरी गा रही हो. आते ही गाँव के डीह और बटवृक्ष पर रुकता है. सीस नवाता है.
शहर से लाई मैली धूल वहीं चित्त हो जाती है. गांव का अंधड़ सर्र सर्र सर्र .. करता है . जैसे पुकार रहा हो, " आओ आओ बड़े दिन बाद! ".

अंगना से दूर ही उसके कदम थम जाते हैं. हाथ नीचे झुक जाते हैं. वो अक्रूर के साथ जाता कृष्ण है. गोकुल को प्रणाम करता है.... 

बाहर पड़ी नंगी गिट्टियां उसके पैर सहला रही होती हैं.शहरी रंग से अनजान थीं वो. पर अब पैरों परद्विस्तरीय चमड़ चढ़ी थी. एक प्राकृतिक और एक चमड़े का बूट....

पर घर आए चिर परिचितहमान को देख ,दीवारों का बुढ़ापे में  कमी तो नहीं पर रुकावट ज़रूर आती हैं. सीलन सूखती है.
चौखट पर बूट पड़ते हैं, खट्ट सी आवाज़.
चौखट रंग की थाली लिए खड़ा होता है. पैर पड़ें, तो पूरे घर में गवहीं की चरण पादुका बना दी जाए.


इतना सब हुआ तो , दुआरे खड़ी तुलसी और रातरानी बस, मुस्कियाये जा रही थी...  

सही बात कही है किसी ने . .. 

" तू जितना आगे आएगा ,पीछे बहुत कुछ छोड़ आएगा" 

#बड़का_लेखक





Tuesday, September 3, 2019

अयोध्या : धार्मिक या साम्प्रदायिक?

"ठुमक चलत् राम चंद्र, बाजत पैजनियां

ठुमक चलते राम चंद्र....... "


अक्सर राजनीतिक गलियारों में घूमती अयोध्या और अयोध्या के राम और राम की अयोध्या, सबके दिल में छायी है । 
टी.वी. पे बैठा एंकर हो, या संसद में बैठी हुकूमत , चाय की दुकान पर बैठे रहीम चचा हों  या  फिर दिल्ली में अपने आंगन के कृत्रिम झूले पर झूलती मिस लोरी मेमसाब हों,
सभी इससे अच्छे से परिचित हैं...  हों भी क्यों ना
अटक से कटक तक फैले भारत के लाल का अंगना है ये..

ये 'शब्द' सिर्फ शब्द नहीं हैं, साहब!
ये है, "इमाम-ए-हिंद " की जन्मभूमि.... 
ये है, मर्यादा के शिरोमणि भगवान राम की माँ... 
पर जानने का मन होगा ना.. कि यहाँ हम काहे ऐसी पलिटिकल बातें कर रहे, 

काहे याद आए हमें राम...?
कहीं सरकार बनवानी है क्या? या फिर किसी  सरकार के गड्ढे खोदने हैं? 
या हम किसी चैनल पर आए हैं, विशेषज्ञ बनके.? 

असल में ..आज कल चल रही चर्चा के दौरान जब मैं अयोध्या की सड़कों पर था, तो सड़के सवाल कर रही थीं ..
और मैं इतराते हुए जवाब देने की कोशिश..... 

आप कभी अयोध्या जाएंगे तो, रास्ते में हड़बड़ाहट में खड़ा रिकाबगंज मिलेगा, वही खड़ा था बिल्कुल मैं...

अब तो रेडलाइट भी लग गई है और जबसे लगी हमने परिवर्तन देखा है। लोगों में भी और नजारों में भी... 

आमतौर पर दिल्ली जैसे बड़े शहरों में रेडलाइट मजबूरी लगती है पर भइया वहाँ अयोध्या में..
अरे हुआँ तो जैसे दिवाली के चिराग जला होय... राम जी भला करैं बाबू लोगन के।


तकनीकी के गर्भ से निकली इस लाइट के बारे में अनेको  व्याख्याता मिल जाएंगे, वैसे  मैंने भी पहली बार देखा तो मुंह से यही निकला.... चलो काम तो अच्छा हुआ।
वहीं खड़े रामसुखदास चाचा के हिसाब से "नइकी लइटिया  बड़ी बेहतरीन लागत है हो"
और फिर पान की पीक मुंह में भरे आरिफ़ चचा भी माशाअल्लाह कहके तारीफ कर दे रहे थे। 

खैर छोड़िये ये सब, भई विकास है " कभी न कभी तो आएगा ही" आज नहीं कल

हाँ तो मैं सड़क पर था..

सड़क की किनारे खड़े पेड़ से झूलकर एक डाली गिरी और पूछा - " ए बेटा!! ई हमरी अयोध्या इतनी अचछी है फिर इसको मारकाट वाली काहे कहते हैं? "

मैंने सोचा आवाज़ मेरे अंदर से होगी..
 इग्नोर किया.... 
फिर बोली - " अरे भइया ई काम्युनल का होत है? और अयोध्या में हिन्दू मुस्लिम मामला कबसे होय लगा? "


मैं अब निश्चित था कि जवाब दे ही दूंं और बता दूँ कहना
 क्या चाहता हूँ -" अरे वो मंदिर मस्जिद का बवाल है ना, तो वही चैनल वाले चिल्ला  रहे, बाकी यहाँ माहौल तो वही है, सरयू जैसा कलकल "

पर बता दो ना कैसे नहीं है साम्प्रदायिक? 
" अरे अम्मा! रिकाबगंज में हुए दुर्गा पूजा याद है न? बारावफात का जुलूस भी तो देखी रही ना यहीं से? "
और वो "गुरूनानक जी का लंगर? "

अरे याद है तुम्हे?
ज़रा याद करो फतेहगंज की खीर गली....
जहाँ एक ओर संतोषी माता के मंदिर की घंटियाँ बजती हैं, तो बगलिया में हर शाम की इबादत  को हांथ ऊपर उठते हैं।

और हाँ अगर असली अयोध्या देखना है तो गली कूचे चलो...

यहाँ  दूर टी.वी. पे टुकूर टुकुर से कैसे पता चले कि कहाँ है पैजनियां और कहाँ दौड़े राम.....

_मैंने इतना कुछ बोलकर स्कूटर की किक मारी....
अपनी पतली एक लहरी काया पर ज्यादा बोझ डाल नहीं सका.. तो खड़ा हुआ और कस के मारा किक..
और  स्कूटर चालू हो गया।
"धुकधुक धुकधुक.... और की की की... करता आधा बजता हार्न आगे बढ़ा"
और फिर  अयोध्या वैसे ही मतवाली चाल चल रही थी,
आगे बढ़े तो सलाम किया पुरखों को....चौक के बीचोंबीच हमारा " पुरखा " खड़ा रहता है..
नाम है " घंटाघर "
और अगर कभी भूख लग जाए तो वहीं कचौड़ी और जलेबी बड़ी बढ़िया मिलती है।
"एकदम मीठी और चाशनी भरी.... "

मैंने भी दस रूपये की एक पत्ता कचौड़ी ली.. ( बाद में दो बार एक्सट्रा मीठी चटनी के साथ) हाथ में तो चिपचिपाहट लग गई,
तो कुछ नहीं स्टेपनी के रबड़ में दो तीन बार रगड़ लिए, बस फिर चकाचक...

और अयोध्या आगे बढ़ रही थी।


( अयोध्या के बारे में हमारी अपनी नज़रों ने जो कुछ जाना है आंगन में पल बढ़ कर जाना है, तथ्य भले ही अलग हो जाएं, पर भावना  एकदम ओरिजिनल वाली है.

और हाँ यहाँ सारे पात्र काल्पनिक हैं  बाकी पूरी लाइन तो याद होगी!!!
फिर मिलेंगे अयोध्या के एक और चेहरे के साथ...
राम राम🙏

#बड़का_लेखक

शिवम् शर्मा


Sunday, September 1, 2019

दिल्ली और दिल?

फर्राटा भरती मेट्रो और टिंग टिंग करते खुलते गेट  और फिर आंधी सी धड़धड़ाती अंदर घुसती भीड़... 

किसी के हाथ पर किसी का बैग लड़ रहा था, तो कोई सहूलियत के लिए बैग्स को आगे लटकाये मूंगफली वाले भइया से कम नहीं लग रहा था ।
पों.. .. .. .... . करती आगे बढ़ती गाड़ी
मानो मुझे बता रही थी कि , "जनाब ये दिल्ली है यहाँ गाड़ियों से तेज़ लोगों की ज़िन्दगी भागती है। "

मैं भी आवाक् सा एक किनारे खड़ा था। अंदर घुुसते समय एक सीट तो दिखी थी, पर मेरे अंदर की हिचक ने वहाँ से दूर रहने को कहा। 
खड़ हो गया मैं सीशे के बने गेट से सटकर...

कुछ  आवाज़ आई " अगला स्टेशन है -कश्मीरी गेट दरवाजे बाईं ओर खुलेंगे ... " ( इंस्ट्रक्शन लंबा चौड़ा था) 

दिल्ली में कश्मीर का नाम सुनकर मन में बच्चों वाले सवाल आए तो ज़रुर थे  , पर फिर भी मैं बाहर आ गया। 

वहाँ की औपचारिकता पूरी की ,एक कार्ड होता है उसी से अंदर आए थे,अब उसी से बाहर भी निकले ।

इतने में मेरे सामने दौड़ लगा दो लड़कियां आ गईं..
यही कोई आठ दस बरस की थीं.. चेहरा धूमिल सा, आंखे चमकती हुई थी, पर उनमें गीलापन भी था...हाथों मेें कालिख सी लगी थी, पर हथेली नाजुक सी ... एकदम छोटी सी बच्ची थी। 

 बाल भी उलझे हुए थे और उसमें थोड़ी थोड़ी धूल भी शरारत कर रही थी साइड में एक बैग टांगा था किसी कोचिंग का लगता था...
जैसे शायद किसी राहगीर ने फेका हो और उस गुड़िया को उपहार मिला हो..

उसके कपड़ो पर जरी का काम हुआ आ, पर चमक बिल्कुल नहीं थी , सितारे गिर चुके थे ..
और कढ़ाई के धागे अब थक चुके थे ,किसी की उतरन उसपे सब रही थी। 
उसने हाथों में गोल्डन किनारी वाली  पुरानी चूड़ियाँ पहनी थी ,
और उन चूड़ियों कि खनखनाहट ने जैसे मुझे सलामी ठोकी और फिर वो तपाक से बोल पड़ी - " भाई कुछ दे दे  ,सुबह से कुछ नहीं खाया  !! दे दो ना भइया  "

मैं कुछ बोल पाता कि, उनका पूरा समूह आ गया और जैसे सब मुझ पर टूट पड़े, उनमें प्रतिस्पर्धा भी थी... 

मैं अकेला था... 
मेरी जेब भी अकेली थी  ,पर उन सबके पेट खाली थे . ..    
मैं किसी एक को देता तो दूसरा चेहरा हारा सा मुझे निहारता.. ये सब कुछ कुछ पल भर में हो गया, यही कोई बीस सेकेन्ड.. 

मैं कुछ कर न पाया , पर पीछे से आवाज आई ," ओ भाई साइड में कर ले समाज सेवा"

समाज सेवा? 
मतलब? 
मैं ठगा सा महसूस कर रहा था,
 मैं कुछ न देकर भी समाज सेवी कैसे हो गया? 

मेरा मन मायूस सा था ...
मुझे आगे बढ़ना पड़ा, और वो फिर से पीछे छूट गईं... 

मेेेेरी आंखों में उनकी गरीबी, भुखमरी, वंचितता और इनके लिए चलाए जा रहे कार्यक्रमों की झड़ी याद आ गई जो बस समाचारपत्रों की हेडलाइन्स में या फिर सिविल सेवा की तैयारी कर रहे युवाओं के पन्नों तक 
सीमित  रह जाती है 

पता नहीं इनके साथ क्या होता है...
पर कापियों पर इन्हें अंडर लाइन किया जाता है... 

मुझे बिलकुल समझ में आ रहा था कि मैं कुछ कर नहीं सकता पर फिर भी . . .
मैं दिल्ली में था और दिल साथ नहीं दे रहा था , 
  
#बड़का_लेखक 

शिवम् शर्मा

पहली बात

कहते हैं कि दिल से चाहो तो सब होता है, देखो ज़रा हो भी गया

बड़े दिनों से जिस हिंदी की माला मैं मेरी कापियाँ पहनती थी  आज उनकी मुंह दिखाई हो रही.. .

आय हाय ! आज तो जैसे शिवम् शर्मा किसी किताब के पहले पन्ने पर अपना नाम देख मचल रहा हो ,जैसे खुद ही चेतन भगत हो और सड़क , बाजा़र कहीं कोई मिल के बोला हो - " सर सर  ! एक सेल्फी सर"

अब ई शिवम् शर्मा कौन है भाई?
और ई का बहकीं बहकीं बातें कर रहा?

शिवम् शर्मा है एक लड़का ,जो बकवासियत के यूनिवर्सिटी से सात बार गोल्ड मेडलिस्ट है , और तीन बार आधी पी.एच.डी. कि डिग्री भी पाया चुका है ।

खैर छोड़िये ! जीवन में स्वयं से संवाद न हो तो बड़ा फीका़ सा लगता है जैसे , दिन पर जिस आइने में टुकुर टुकुर मुंह निहारते हैं
बेचारा वो आइने खुद की सूरत न देख पाया कभी।

तो मैंने ये पूरी बात ये बताने के लिए की  आज से  अब से अभी से ब्लाग की दुनिया में भी हम आ गये हैं , देखते हैं कब तक टिकते हैं।
चलिए दुआओं की उम्मीद है . ...


  • (नहीं भी देंगे तो भी क्या..  )


फिर से मांग लेंगे।
#बड़का_लेखक
_शिवम् शर्मा

नज़र

कोदंड का अर्थ क्या है ?

सदियों से बहुप्रतीक्षित श्रीरामजन्मभूमि मंदिर निर्माण कार्यक्रम का शुभारंभ अयोध्या में हुआ. इस कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने मंदिर निर्माण ...